"बह रही थी ज़िंदगी यूँ एक लहर की छांव से
ज्यों टूटा पत्ता उड़ जाता है होले एक बयार से
बहती बहती ये सरिता गुम जाती जाने कहाँ
फिर भी रोशन मन का कोना आशा के एक भाव से"
"बीता वक़्त जाने कहाँ छुप गया मुँह मोड़ के
रोशनी को जाने मेरी कालिका क्यूँ लग गयी
रात दिन का फासला क्यूँ मिट गया मेरा भला
रेत के सेहरा में मेरी आरज़ू क्यूँ दब गयी"
"बैठ कर के एक किनारे देखा जो दूजी ओर को
डोर लहरों के भंवर में रोशनी वो खो गयी
आता जाता हर एक लम्हा ज़िंदगी का मेरी अक्स
जाने क्यूँ इस भंवर में फिर आज मीरा आ गयी"
"अक्स'
Monday, September 21, 2009
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