एक दिन चला मैं किसी डगर पर
रुके पग मेरे सुनकर कुछ करूँ स्वर
चला उधर मैं सुन ये कोलाहल
देखा किए थे शोक कुछ जन एक मृत पर
बिलख २ कर रो रही थी माता उसकी
थाम कलाई बहन पड़ी थी बेसुध उसकी
नहीं थम रहे थे आंसू उसके तात के
बिछ्ङ गया हो जैसे कोई पात डाल से
नाम ले ले कर पुकार रहे थे भाई उसके
कर रहे करुण पुकार पितामह भी उसके
दो पग चलने पर ही डोला था उनका तन
देख जनों का हाल सिहर गया मेरा मन
लेके चले जब चार जन उस मृत को
पुकार उठी माँ "मत ले जाओ लाल मेरे को"
सोया है गहरी नींद में अभी जाग उठेगा
उठकर सबसे पहले मेरे गले लगेगा
पुकारती रह गई यही बस माता उसकी
चला गया वो बस बन गया मिटटी
"अक्स"
Sunday, November 2, 2008
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